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इतिहास

१७ सितम्बर १९९७ को औरैया और बिधूना तहसीलें इटावा जिला से अलग कर के नये जिले औरैया में शामिल की गयी थी । यह नेशनल हाईवे नंम्बर २ ( मुगल रोड), इटावा मुख्यालय के ६४ किमी. पूर्व में और कानपुर शहर के १०५ किमी. पश्चिम में स्थित है।

आधुनिक इतिहास

रोहिल्लास के तहत १७६० ई. में अहमद शाह दुर्रानी ने भारत पर आक्रमण किया। उसका पानीपत के मैदान पर मराठों व्दारा १७६१ में विरोध किया गया और उसनें मराठों को एक असाधारण रुप से हार दी। अन्य मराठा सरदारों के अलावा गोविन्द राव पंडित ने भी युद्ध में अपना जीवन खो दिया। भारत से प्रस्थान पूर्व दुर्रानी प्रमुख ने रोहिल्ला सरदारों को देश के बड़े हिस्सों में भेजा। धुंदे खान को शिकोहाबाद, इनायत खांन (हाफीज़ रहमत खान के बेटे) को इटावा मिला जो कि मराठों के कब्जे में था और १७६२ में एक रोहिल्ला सेना मुल्ला मोहसिन खान के नेतृत्व में मराठो से सम्पत्ति हथियाने के लिये भेजी गयी थी। इस सेना का इटावा शहर के निकट किशन राव व बाला राव पंडित, जो यमुना पार की सुरक्षा के लिये प्रतिबद्ध थे, के व्दारा विरोध किया गया। मोहसिन खान व्दारा इटावा के किले की घेराबन्दी की गयी थी लेकिन किलेदार ने जल्द ही आत्मसमर्पण कर दिया और जिला रोहिल्लास के हाथों में चला गया।

हालांकि शुरुआत में व्यवसाय केवल नाम मात्र के ही थे। जमींदारों ने इनायत खान को राजस्व का भुगतान करने से इन्कार कर दिया और अपने किलों में अवज्ञा का अधिकार सुरक्षित कर दिया। शेख कुबेर और मुल्ला बाज़ खान के नेतृत्व में मजबूत सैन्य बल और कुछ तोप खाने रोहिल्लास भेजे गये और बहुत सारे छोटे किले मिट्टी में मिल गये लेकिन इतनी बर्बरता में भी जमुना पार क्षेत्र के कमैत के जमींदार ने इनायत खान के अधिकार का विरोध किया।उसके बाद हाफिज़ रहमत और इनायत खान खुद इटावा आये और जमींदारों के खिलाफ बर्बरतापूर्वक कार्यवाही को तेज किया और अन्ततः वे सन्धि के लिए तैयार हो गये। उसके बाद हाफिज़ रहमत बरेली चले गये और रोहिल्ला चौकियाँ जिले में सुविधाजनक स्थानों पर स्थापित कर दी गयी। इसी बीच एक नए राजा नाजिब खान का दिल्ली में उदय हुआ। नाजिब खान को नाजिब-उद् –दौला, आमिर-उल-उमरा, शुजा उद- दौला के नाम से भी जाना जाता है। नबाब वाजिर ने सफदर जंग में सफलता प्राप्त की और दुर्रानी व्दारा रोहिल्लास की दी गयी जमींन के अलावा बंगश से अलीगढ़ तक की सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया लेकिन फर्रुखाबाद के अफगानों को वाजिर की दुश्मनी बर्दाश्त नहीं हुई और १७६२ में उसने फर्रुखाबाद पर हमले में शामिल होने के लिए नाजिब-उद-दौला को मनाया। हमला हाफिज़ रहमत खान की सहायता से जीता गया। और एक बार फिर मामले शान्ति से सुलझ गये।

१७६६ में मराठों ने एक बार फिर मल्हार राव, जो अपने अवसर का इन्तजार कर रहा था, के नेतृत्व में जमुना पार करके फंफूद पर आक्रमण कर दिया। जहाँ पर मुहम्मद हसन खान, मोहसिन खान के सबसे बड़े पुत्र के नेतृत्व में रोहिल्लास सेना तैनात की गयी थी। इस खबर के मिलने पर हाफिज़ रहमत बरेली से मराठों का सामना करने के लिये आगे बढ़ा। फफूँद के करीब उसको शेख कुबेर, इटावा के रोहिल्ला राज्यपाल का साथ मिला और युद्ध में चुनौती देने का तैयारी शुरु हो गयी। लेकिन मल्हार राव ने जोखिम में शामिल होने से मना कर दिया। और एक बार फिर वह जमुना पार चला गया। महत्वाकांक्षी नाजिब-उद-दौला १७६२ में अहमद खान की तरफ से बांग्ला देश की ओर से रोहिल्लास के हस्तक्षेप से काफी चिढ़ गया था और वह भी बदला लेने के लिये जल्दी से अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने में लगा हुआ था, उसने १७७० में हाफिज़ रहमत खान के पतन की साजिश रचना शुरु कर दिया।

नाजिब-उद-दौला और मराठों की संयुक्त सेना दिल्ली से आगे बढ़ी, लेकिन कोइल में नाजिब-उद-दौला बीमार पड़ गया और उसने अपने सबसे बड़े पुत्र जबीता खान को मराठों की सहायता करने के लिये छोड़कर अपने कदम पीछे ले लिये। फिर भी जबीता खान ने ,किसी भी तरह से अपने अफगान भाईयों के खिलाफ युद्ध का निपटारा नहीं किया । यह जानने पर मराठों ने उसे अपने शिविर में ही व्यावहारिक रुप से कैदी बना लिया और उसने हाफिज रहमत खाने से अपनी रिहाई प्राप्त करने के लिये अनुरोध किया। तद्नुसार हाफिज रहमत खान ने जबीता खान की रिहाई के लिये मराठों से वार्ता शुरु की, लेकिन मराठा नेताओं ने अपने मूल्य के रुप में इटावा और शिकाहाबाद के जागीर के आत्मसमर्पण की माँग की। हाफिज रहमत खान उन शर्तों पर निपटारा करने के लिये सहमत नहीं था। और वार्ता के दौरान मराठों से सौदा करने के बीच में जबीता खान बच के भाग निकला। अब मराठों और अफगाँन सेनाओं के बीच में कई अनियमित सन्धियाँ हुई। लेकिन जबकि धुंदे खान शिकोहाबाद देने के लिये तैयार हो गया था, इनायत खान ने इटावा देने से मना कर दिया।

अंत में, अपने पिता की व्यवस्था से निराश होकर वह बरेली लौट आया और उसके पिता ने अपनी जिम्मेदारी पर मराठों को किला सौंपने के लिये, शेख कुबेर इटावा के रोहिल्ला राज्यपाल को आदेश भेजा। अब मराठों ने इटावा के लिये कुच कर दी लेकिन चूँकि आदेश शेख कुबेर के पास अभी तक नहीं पहुँचा था, उसने युद्ध का आहवाहन किया। कई हताश हमले इटावा के किले पर हुए लेकिन अंत मे हाफिज रहमत खान के आदेशानुसार किला मराठों को सौंप दिया गया और रोहिल्लास ने एक बार फिर इसे मराठों के हाथ में देकर जिले का परित्याग कर दिया। बाद में उसी वर्ष, १७७१ ई० में मराठों ने दिल्ली के लिये कूच की और सम्राट शाह आलम को बहाल कर दिया जो सिंहासन पर काबिज था। अब वे साम्राज्य के स्वामी थे और जबीता खान उनका विरोध करने के लिये तैयार था। अपनी सेना एकत्रित करने पर, उसने मराठों पर दिल्ली के समीप आक्रमण कर दिया लेकिन उसे मुँह की खानी पड़ी और १७७२ में रोहिल्लाखण्ड के एक बड़े हिस्से और नजफगढ़ जहाँ जबीता खान का परिवार और खजाना रहता था, पर कब्जा कर लिया।

अवध के शासन में जबीता खान ने शुजा-उद-दौला अवध के नबाब वाजिर की सहायता माँगी, लेकिन नबाब ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया जब तक कि हाफिज रहमत खान अपनी तरफ से उसे प्रस्ताव नहीं दें। शाह आलम और मराठों से जबीता खान के परिवार को फिर से बसाने और रोहिल्लाखण्ड से निकासी की बहाली के लिये वार्ता शुरु की गई । मराठे ४० लाख रुपये को स्वीकार करने के लिये तैयार हो गये। बशर्ते कि शुजा-उद-दौला अपने को भुगतान के लिये जिम्मेदार बनाये। लेकिन अब शुजा-उद-दौला ने ऐसी किसी सन्धि में शामिल होने से मना कर दिया जब तक कि हाफिज रहमत खान पैसे के लिये प्रतिज्ञापत्र न दे। इस पर हाफिज रहमत खान सहमत हो गया, अनुबंध हस्ताक्षरित कर दिया गया और मराठे रोहिल्लाखण्ड से सेवानिवृत्त हो गये। १७७३ ई० में मराठों ने शुजा-उद-दौला पर हमला करने का निर्णय लिया और हाफिज रहमत खान की मदद हासिल करने का प्रयास किया। बाद में उसे उन्होंने अस्वीकृत कर दिया। इसके स्थान पर रहमत खान ने शुजा-उद-दौला को सूचना भेजी,यह अवगत कराते हुए कि उसने क्या किया था और इसके बल पर अपने अनुबंध की बहाली का अनुरोध किया। शुजा-उद-दौला ने हाफिज रहमत खान के आचरण के लिये अपना अनुमोदन व्यक्त किया और अनुबंध बहाली का वादा किया जब मराठा पराजित हो चुके होगें। जल्द ही मराठों को असदपुर में शुजा-उद-दौला और हाफिज रहमत खान की संयुक्त सेनाओं व्दारा हार का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरुप वे रोहिल्लाखण्ड ही नहीं दिल्ली से भी चले गए।

शुजा-उद-दौला अवध तो लौट आए,लेकिन हमेशा अनुबंध को बहाल करने के अपने वादे से इन्कार करते रहे। उन्होने बाद में कहा कि हाफिज़ रहमत खान को कई रोहिल्लास अफगानों ने बहकाया, और फिर रहमत खान की आपत्ति के बावजूद इटावा और शिकोहाबाद से मराठा चौकियाँ बेदखल कर दी। वह फिर आगे बढ़ा और हाफिज रहमत खान से अनुबंध होने के कारण शेष ३५ लाख रुपये की राशि का निर्वहन करने के लिये मुलाकात की। यह केवल दुश्मनी बढाने के उद्देश्य से किया गया बहाना था जिसके लिये नबाब ने पहले से ही सेना को इकट्ठा करना शुरु कर दिया था और हाफिज रहमत खान भुगतान करने में विफल रहा और नबाब गंगा की ओर बढ़ गया अवध के पेचीदा इतिहास में अंतिम दृश्य शुजा-उद-दौला, जो ब्रिटिश सेना व्दारा सहायता प्राप्त था, शाहजहाँपुर जिले में २३वीं अप्रैल १७७४ ई० में इटावा की अवध सरकार में मीरपुर कटरा के युद्ध में हाफिज रहमत खान को हराने से समाप्त हुआ था।

१७७४ से १८०१ तक इटावा जिला अवध की सरकार के अधीन रहा। लिटिल का इस अवधि में इसे परेशान करने के लिए उदय हुआ और लिटिल इसके इतिहास केलिये जाना जाता है। कई सालों के लिये जिले का प्रशासन मियाँ अलमास अली खान के हाथ में था। हम जानते है कि अली इटावा, कुदारकोट और फफूँद में तैनात थे। उनमें से जिसको आखिर में कार्यालय नामित था, वह राजा भागमल या भारामल था। जो जाति से जाट और अलमास अली खान के बहिन का बेटा, जो जन्म से हिन्दू था। लेकिन बाद में किन्नर बना दिया गया और इस्लाम धर्म परिवर्तन करा दिया गया। राजा भागमल ने फफूँद में एक किला और पुरानी मस्जिद बनवाई थी जिसके अभिलिखित शिलालेख अभी भी दर्ज है। अलमास अली खान, कालोनी स्लीमाँन में अवध व्दारा प्रदत्त सबसे महान और सबसे अच्छा आदमी दर्ज किया गया है, जो बहुत धनी था लेकिन कोई वंशज न होने के कारण उसने अपना धन, अपने आरोपो के लिये प्रतिबद्ध लोगों की भलाई के लिये खर्च कर दिया। वह कभी-कभी कुदरकोट में, जहाँ उन्होंने एक किला जिसके खण्डहर अभी भी बने हुए है, अदालत का आयोजन किया करते थे। इटावा में कहा जाता है, कि अमिल्स किले में बसते हैं,लेकिन शुजा-उद-दौला व्दारा इटावा में नगरवासियों के निरुपण के परिणास्वरुप नष्ट कर दिया गया था बहुत लम्बे समय तक अमिल्स ने अभेदय निवास पर कब्जा कर लिया था जहाँ वे लोगो का उत्पीड़न करने के अलावा और कुछ नहीं करते थे।